इस बार का चुनाव केजरीवाल सरकार की असलियत पर होगा – Rant Raibaar

Estimated read time 0 min read

अजीत द्विवेदी
दिल्ली का इस बार का चुनाव पिछले तीन चुनावों से अलग होने जा रहा है। ऐसा जमीन पर भले नहीं दिखाई दे या लोकप्रिय धारणा अभी ऐसी नहीं दिख रही हो लेकिन आम आदमी पार्टी के सुप्रीमो अरविंद केजरीवाल जिस तरह से चुनाव लडऩे की तैयारी कर रहे हैं उससे लग रहा है कि जमीनी स्थितियां बदल गई हैं या बदल रही हैं। पहले तीन चुनावों की तरह केजरीवाल न तो अन्ना हजारे के नेतृत्व में हुए ‘इंडिया अगेंस्ट करप्शन’ के आंदोलन की लहर पर सवार हैं, न लोकपाल बनाने के संकल्प के आधार पर चुनाव लड़ रहे हैं, न आम आदमी होने का दावा करके चुनाव लड़ रहे हैं और न ‘मुफ्त की रेवड़ी’ बांटने के दम पर चुनाव लड़ रहे हैं। इस बार का चुनाव उनके और उनकी सरकार की असलियत पर होगा।

उनके राजकाज की असलियत हवा और पानी का प्रदूषण है, यमुना की गंदगी है तो स्थायी विकास के कार्यों का ठप्प होना और दिल्ली के घाटे की अर्थव्यवस्था की ओर बढऩा है। ध्यान रहे अरविंद केजरीवाल ने पहला चुनाव आंदोलन की लहर पर लड़ा था और बदलाव की चाह रखने वाले लोगों ने उनको वोट दे दिया था। उस समय लगातार तीन बार की कांग्रेस की सरकार से लोग उबे भी थे और निर्भया आंदोलन ने भी लोगों का मतदान व्यवहार तय करने में बड़ी भूमिका निभाई थी। तब केजरीवाल की पार्टी 28 सीट के साथ दूसरे स्थान पर रही थी, जबकि 32 सीट जीत कर भाजपा सबसे बड़ी पार्टी बनी थी। कांग्रेस को आठ सीटें मिली थीं।

कांग्रेस ने उस समय सबसे बड़ी रणनीतिक भूल की और आप को समर्थन देकर केजरीवाल को मुख्यमंत्री बनाया। अरविंद केजरीवाल ने लोकपाल के नाम पर 49 दिन के बाद इस्तीफा दे दिया। अगला चुनाव लोकपाल और मुफ्त बिजली, पानी के नाम पर हुआ तो आदर्शवादी और आकांक्षी लोगों ने एक साथ होकर केजरीवाल को वोट दिया और वे 67 सीटें जीत गए। अगला चुनाव ‘मुफ्त की रेवड़ी’ और अच्छे स्कूल, अस्पताल के नाम पर हुआ और फिर आम आदमी पार्टी चुनाव जीत गई।

लेकिन 10 साल के शासन के बाद हर चीज की हकीकत लोगों के सामने है। ‘इंडिया अगेंस्ट करप्शन’ और अन्ना हजारे को लोग भूल चुके हैं। युवा मतदाताओं का एक बड़ा समूह ऐसा है, जिसको न तो आंदोलन याद है और न अन्ना हजारे याद हैं। इसी तरह लोकपाल भी अब किसी को याद नहीं है। वह तो खुद केजरीवाल को भी याद नहीं है। अब तो भ्रष्टाचार रोकने के लिए मोबाइल से वीडियो बना लेने जैसे बेवकूफी भरे सुझावों के विज्ञापन भी दिल्ली सरकार नहीं दे रही है। इसी तरह केजरीवाल अब मफलर लपेट, खांसते हुए आम आदमी नहीं हैं, बल्कि 50 करोड़ रुपए के खर्च से बनाए उनके ‘शीशमहल’ की तस्वीरें और वीडियो दिल्ली की जनता देख चुकी है। ऐसे ही ‘मुफ्त की रेवड़ी’ में कुछ भी अनोखापन नहीं रह गया है।

एक के बाद एक राज्यों में सत्तारूढ़ दल या विपक्षी पार्टियां ढेर सारी वस्तुएं और सेवाएं मुफ्त में बांटने का वादा करके चुनाव जीत रही हैं। जनता को पता है कि जो जीत कर आएगी वह मुफ्त की चीजें देगा। किसी पार्टी की हिम्मत नहीं है कि ‘मुफ्त की रेवड़ी’ बंद कर दे। इसलिए अरविंद केजरीवाल का यह भय दिखाना कि भाजपा आएगी तो मुफ्त बिजली, पानी और बस सेवा बंद कर देगी, बहुत कारगर नहीं होने वाला है।

सो, पिछले तीन चुनावों में जीत के जो फॉर्मूले थे वो या तो एक्सपोज हो गए हैं या अप्रासंगिक हो गए हैं। केजरीवाल की अब तक की जीत में एक बड़ा फैक्टर कांग्रेस पार्टी की कमजोरी का रहा है। कांग्रेस को 2013 के विधानसभा चुनाव में 24.60 फीसदी वोट आया था। अगले चुनाव में यानी 2015 में यह घट कर 9.70 फीसदी रह गई। यानी कांग्रेस का वोट 15 फीसदी कम हुआ। यह पूरा वोट और अलग से 10 फीसदी अतिरिक्त वोट आप को मिला, जिससे वह 2013 के 29.50 से बढ़ कर 2015 में 54 फीसदी वोट पर पहुंच गई। भाजपा के वोट में 0.8 फीसदी की कमी आई यानी उसने अपना वोट आधार बचाए रखा। 2020 के चुनाव में कांग्रेस और कमजोर हुई।

उसका वोट घट कर साढ़े पांच फीसदी पर आ गया, जबकि आम आदमी पार्टी को लगभग उतना ही वोट आया, जितना 2015 में आया था। इस बार फर्क यह था कि कांग्रेस का जो चार फीसदी के करीब वोट घटा वह भाजपा को चला गया। उसका वोट 33 फीसदी के औसत से बढ़ कर साढ़े 38 फीसदी हो गया। पांच फीसदी वोट बढऩे से भाजपा की पांच सीटें बढ़ीं।

दिल्ली के चुनाव में कांग्रेस का वोट प्रतिशत घटते जाने का हिसाब सीधे तौर पर उसकी राष्ट्रीय  हैसियत से जुड़ा है। वह 2013 में केंद्र की सत्ता में थी तो दिल्ली विधानसभा में उसे 24 फीसदी से ज्यादा वोट मिला। 2015 के दिल्ली चुनाव के समय तक वह बुरी तरह हार कर 44 लोकसभा सीट वाली पार्टी रह गई थी, जिसे मुख्य विपक्षी पार्टी का दर्जा भी नहीं मिला था। अगले चुनाव यानी 2020 में भी उसकी कमोबेश यही स्थिति थी। वह 2014 और 2019 का लोकसभा चुनाव बुरी तरह हारी थी। परंतु 2024 के चुनाव में उसने बहुत अच्छा प्रदर्शन किया है। उसने 99 सीटें जीती हैं और देश भर में उसकी वापसी की चर्चा शुरू हो गई है। भले वह हरियाणा और महाराष्ट्र में हार गई, लेकिन मुस्लिम मतदाताओं में कांग्रेस की ओर रूझान दिखने लगा है। यह अरविंद केजरीवाल के लिए चिंता की बात है।

केजरीवाल की राजनीतिक सफलता मुस्लिम और प्रवासी वोटों पर टिकी हैं। अगर उसका एक हिस्सा कांग्रेस की ओर जाता है तो अरविंद केजरीवाल के लिए मुश्किल होगी। इसलिए वे कांग्रेस से मुस्लिम नेताओं को तोड़ कर उन्हें उम्मीदवार बना रहे हैं। लेकिन इससे नाराज आप के मुस्लिम नेता कांग्रेस और ऑल इंडिया एमआईएम की तरफ जा रहे हैं। आप विधायक अब्दुल रहमान कांग्रेस में गए हैं तो पार्षद ताहिर हुसैन एमआईएम में गए हैं। इस बीच आम आदमी पार्टी के महरौली के विधायक नरेश यादव कुरानशरीफ की बेअदबी के केस में दोषी ठहराए गए हैं। उनको दो साल की सजा हुई लेकिन केजरीवाल ने उनके खिलाफ कार्रवाई नहीं की।

मुसलमानों में इससे भी अरविंद केजरीवाल के प्रति संशय बढ़ा है। तभी आप, कांग्रेस और एमआईएम के बीच मुस्लिम वोट बंटता है या एकमुश्त आप की ओर जाता है, इस पर बहुत कुछ निर्भर करेगा। मुस्लिम के साथ दलित वोट का रूझान भी निर्णायक होगा। दिल्ली में दलित आबादी बहुत बड़ी है और उसका एकमुश्त वोट आप को मिलता रहा है। परंतु पिछले पांच साल में उसके दो बड़े दलित चेहरे राजकुमार आनंद और राजेंद्र पाल गौतम पार्टी छोड़ कर जा चुके हैं।

केजरीवाल भले अपनी पदयात्रा में हर जगह कह रहे हों कि सभी 70 सीटों पर वे खुद लड़ रहे हैं और लोगों को उम्मीदवारों को नहीं देखना है लेकिन हकीकत यह है कि वे उम्मीदवारों पर सबसे ज्यादा मेहनत कर रहे हैं क्योंकि उनको अपने चेहरे पर भरोसा नहीं रहा। वे छोटे छोटे प्रबंधन में जुटे हैं। बाहर से लाकर नेताओं को टिकट दे रहे हैं। अपने विधायकों की टिकट काट रहे हैं या उनकी सीट बदल रहे हैं और मुफ्त की नई रेवडिय़ों की घोषणा कर रहे हैं। 2013 में उन्होंने कांग्रेस को उसी दिन हरा दिया था, जिस दिन ऐलान किया था कि वे नई दिल्ली सीट पर तत्कालीन मुख्यमंत्री शीला दीक्षित के खिलाफ लड़ेंगे।

लेकिन 2024 में उसी दिन कमजोर दिखने लगे, जिस दिन उन्होंने अपने नंबर दो मनीष सिसोदिया की सीट पटपडग़ंज से बदल कर जंगपुरा कर दी। अरविंद केजरीवाल के नंबर दो नेता, जिन्होंने कथित तौर पर दिल्ली में शिक्षा क्रांति की है, जो कथित तौर पर दिल्ली के बच्चों के ‘मनीष चाचा’ हैं, जिनको केंद्र सरकार ने कथित तौर पर सिर्फ इसलिए जेल भेजा ताकि दिल्ली की शिक्षा क्रांति को रोका जा सके, वे उस सीट से चुनाव नहीं लड़ेंगे, जहां से तीन बार जीते हैं। वहां से चुनाव लडऩे के लिए एक कोचिंग संचालक को लाया गया है, जिनकी रील्स सोशल मीडिया में काफी लोकप्रिय होती हैं। वे थोक के भाव कांग्रेस और भाजपा के पूर्व विधायकों को अपनी पार्टी की टिकट दे रहे हैं। बहरहाल, इसमें संदेह नहीं है कि अरविंद केजरीवाल अब भी दिल्ली में सबसे बड़ी ताकत हैं।

वे लगातार दो विधानसभा चुनावों में 50 फीसदी से ज्यादा वोट लेकर जीते हैं। परंतु इस बार वह स्थिति नहीं दिख रही है। इस बार किसी लहर की बजाय छोटे छोटे प्रबंधनों से और उम्मीदवार बदल कर केजरीवाल सत्ता विरोधी लहर को थामना चाहते हैं तो मुफ्त की नई रेवडिय़ों की घोषणाओं से अपने वोट आधार को खुश करने का प्रयास कर रहे हैं। उन्होंने ऑटो वालों के लिए नई योजनाओं की घोषणा की है। आने वाले दिनों में कुछ और नई घोषणाएं होंगी। ऐसी घोषणाएं तो भाजपा भी करेगी। तभी मुकाबला हर सीट पर होगा और जमीनी प्रबंधन व वोट डलवाने की जिसकी मशीनरी बेहतर होगी वह जीतेगा।

You May Also Like

More From Author

+ There are no comments

Add yours