आरक्षण को लेकर आंदोलन बेकाबू – Rant Raibaar

Estimated read time 1 min read



आरक्षण को लेकर आंदोलन बेकाबू

डॉ. दिलीप चौबे
बांग्लादेश में आरक्षण को लेकर छात्रों का आंदोलन बेकाबू हो गया है। देश में अस्थिरता का संकट मंडरा रहा है। हाल में प्रधानमंत्री शेख हसीना ने फिर से जनादेश हासिल किया लेकिन आम चुनाव में पराजित राजनीतिक तत्वों को बदला लेने का मौका मिल गया।
चुनाव का बहिष्कार करने वाली विरोधी बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी (बीएनपी) और कट्टर मुस्लिम संगठन जमायते इस्लामी पर्दे के पीछे असंतोष को हवा दे रहे हैं। इतना ही नहीं कूटनीतिक हलकों में यह भी चर्चा है कि बांग्लादेश महाशक्तियों के शक्ति-संघर्ष का अखाड़ा बन गया है।

भारत के लिए बांग्लादेश का घटनाक्रम विशेष चिंता का विषय है। पड़ोसी देश म्यांमार में पहले से ही गृह-युद्ध और सैन्य संघर्ष के हालात हैं। अब इसी क्षेत्र में एक अन्य पड़ोसी देश ने भी अस्थिरता का संकट पैदा हो गया है। यह भारत के लिए विदेश नीति ही नहीं बल्कि आंतरिक सुरक्षा की समस्या भी पैदा करता है। पूर्वोत्तर भारत का मणिपुर राज्य काफी समय से अशांति से पीडि़त है। पड़ोस के अन्य राज्यों पर भी इसका असर पड़ रहा है। पूर्वोत्तर भारत में सामान्य स्थिति बनी रहे इसके लिए आवश्यक है कि म्यांमार और बांग्लादेश में भी शांति और स्थिरता कायम हो।

भारत कभी नहीं चाहेगा कि पड़ोसी देश में शेख हसीना की सरकार अस्थिर हो। यह भी संभव है कि जरूरत पडऩे पर भारत की ओर से बांग्लादेश में आवश्यक सहायता मुहैया कराई जाए। पिछले काफी समय से यह चर्चा है कि म्यांमार में अमेरिका और यूरोपीय देश ईसाई बहुल क्षेत्र में एक पृथक देश ‘कुकी लैंड’ बनाने की योजना पर काम कर रहे हैं। कुकी विद्रोहियों को हथियार और आर्थिक संसाधन मुहैया कराए जा रहे हैं। पश्चिमी देशों की भारत से अपेक्षा थी कि वह म्यांमार की सैनिक सत्ता के खिलाफ सख्त रवैया अपनाए। लेकिन भारत ने अपने राजनीतिक हितों के मद्देनजर संतुलित नीति अपनाई। इस क्षेत्र में कुकी लैंड की स्थापना पूर्वोत्तर भारत के लिए भी समस्या का कारण भी बन सकती है। बांग्लादेश में भारत के रणनीतिक हित और भी अधिक प्रबल हैं।

विशेषकर ऐसी स्थिति में जब भारत विरोधी बीएनपी और जमायते इस्लामी सत्ता पर काबिज होने की कोशिश कर रही हैं। अमेरिका और पश्चिमी देशों की भूमिका भी संदिग्ध है। प्रधानमंत्री शेख हसीना ने आम चुनाव के समय ही आरोप लगाया था कि अमेरिका और पश्चिमी देश चुनाव में हस्तक्षेप कर रहे हैं। अब उनके आरोपों को और बल मिल गया है। ऊपरी तौर पर छात्रों का आंदोलन कुछ सीमा तक जायज माना जा सकता है। देश में आरक्षण व्यवस्था के तहत सरकारी नौकरियों और शिक्षण संस्थानों में 56 फीसद सीटें आरक्षित करने का प्रावधान है। सबसे अधिक 30 फीसद सीटें बांग्लादेश मुक्ति संघर्ष में भाग लेने वाले लोगों के उत्तराधिकारियों के लिए आरक्षित है।

इसके अलावा महिलाओं और पिछड़े जिलों के लिए 10-10 फीसद और आदिवासियों के लिए 5 फीसद आरक्षण की व्यवस्था है। विकलांगों के लिए 1 फीसद आरक्षण है। आरक्षण व्यवस्था के खिलाफ 2018 में भी व्यापक छात्र आंदोलन हुआ था जिसके बाद यह व्यवस्था ठंडे बस्ते में डाल दी गई। पूरा विवाद पिछले महीने दोबारा उभरा जब उच्च न्यायालय ने आरक्षण की व्यवस्था फिर से बहाल कर दी। शेख हसीना ने फैसले का स्वागत करते हुए कहा था कि मुक्ति संघर्ष के योद्धाओं के उत्तराधिकारियों को आरक्षण दिए जाने में क्या आपत्ति है। उन्होंने विरोधियों पर कटाक्ष करते हुए कहा कि ‘क्या पाकिस्तान का साथ देने वाले रजाकारों के उत्तराधिकारियों को आरक्षण मिलना चाहिए।’

यह दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है कि नई पीढ़ी बांग्लादेश मुक्ति संघर्ष का अपमान कर रही है। शेख हसीना सरकार के कामकाज की आलोचना की जा सकती है लेकिन मुक्ति संघर्ष को भूलाना और रजाकारों का महिमामंडन कदापि उचित नहीं। इससे यह भी पता चलता है कि बांग्लादेश में इस्लामीकरण का संकट बरकरार है जिसका असर भारत पर भी पड़ सकता है। भारत ने वर्ष 1971 में बांग्लादेश मुक्ति संघर्ष में निर्णायक भूमिका निभाई थी। आधी सदी बाद मुक्ति संघर्ष की विरासत को बचाने के लिए भारत की ओर सबकी नजर होगी।

You May Also Like

More From Author

+ There are no comments

Add yours